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Saturday 31 August, 2013

जन- आन्दोलन की बदलती परिभाषा




हाल के कुछ दिनों में समाज में परिर्वतन की नई लहर चल रही है। चारो दिशाओं से बदलाव की बात की जा रही है, ऊपरी तौर देखे तो यह स्वसथ लोकतंत्र की सबसे प्रमुख विशेषतां है। लेकिन जिस प्रकार से सिक्के दो पहलू होते है उसी प्रकार से हर चीज का सकारात्मक व नकारात्मक दोनो पक्ष होते है, और इन दोनो पक्षो का निष्पक्ष रुप से अध्यन करना भी लोकतंत्र की प्रमुख विशेषता है।
जिस तरह से समाज में भ्रष्ट्राचार व्यापत हैं और उस पर राजनेताओ का जो उदासीन व्यवहार है यह तो देश व लोकतांत्रिक व्यवसथा के लिए खतरनाक हैं ही लेकिन इसे लेकर जिस तरह आन्दोलन चल रहे है उसने समाज में एक भ्रम कि स्थिती पैदा कर दी है, यह भ्रम जाल हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था व देश के लिए शुभ सकेत नहीं। लोकतांत्रिक व्यवस्था को सुचारु रुप से चलाने में जन-आन्दोलनों की महत्वपूर्ण भूमिका रहती है, इतिहास गवाह रहा जन के आंधी के सामने बड़े से बड़ा बडगद नहीं ठीक पाया है लेकिन किसी भी जन आन्दोले के सफलता के लिए यह आवश्यक है कि उसकी दिशा, दशा, लक्ष्य सटीक हो।
भारत में आजादी के बाद 77 का जे.पी आन्दोलन पहला ऐसा जन-आन्दोलन था जो अपने लक्ष्य को पाने में सफल हो पाया इससे पहले किसी ने कल्पना भी नहीं की थी कि इस देश में कभी गैर-कांग्रेसी सरकार बन पायेगी। जे.पी के इस आन्दोलन के सफलता का मूल मंत्र उसकी सुदृढ़ता, लक्ष्य व दिशा की स्पषटा व सभी जन-मानस को साथ लेकर चलना रहा था। जन-आन्दोलन चाहे व सत्ता परर्वितन के लिए हो या किसी सामाजिक सरोकार के लिए, राजनैतिक हो, देश व्यापी हो, या क्षेत्र से जुड़े सम्सयाओ के लिए हो आन्दोलन की सफलता इस बात निर्भर करती है कि उसमें आम जन-मानस व समाज के तमाम वर्गो की भागीदारी किस प्रकार से रही है।
वर्तमान समय में जन-आन्दोलन की परिभाषा,दिशा व दशा दोनो बदल गई है। समय के साथ परिवर्तन होना आवश्यक है लेकिन जब आन्दोलन आधार वह ही परिर्वित हो जाये तो देश व आन्दोलन दोनो के लिए ही हानिकारक है। वर्तमान समय कुछ ऐसा ही हो रहा है, जन-आन्दोलन की दिशा, दशा व लक्ष्य तीनों भ्रमित है जिसका अंत: परिणाम यह होता है कि ये आन्दोलन देश को दिशा देने की बाजये उन्हें भ्रमित कर देते है।
आज के समय आन्दोलन आरोपो से शुरु होता है और आरोप पर खत्म हो जाता है, अंत में आम जनता जिसके लिए आन्दोलन किया जाता है वह देखती रह जाती है। रामलीला मैदाम में, इंडिया अगेंसट करपशन व अन्ना का  जब आन्दोलन शरु हुआ था तो लगा था देश में एक नई क्रांति आने जा रही है, लोगो पूरे विश्वास के साथ अन्ना का साथ भी दिया, जब अन्ना रामलीला मैदान मे थे मानो पूरा देश रामलीला मैदान में सम्मलित होने को आतुर था लगा बदलाव अब होकर रहेगा लेकिन अंत इसका परिणाम क्या हुआ शून्य, जहां से चले थे वहीं पहुंच गये, कहने को बाबा राम देव व अन्ना हजारे या उनकी टीम जो अब अलग हो चुकी है (अरिवंद केजरीवाल)
इन सभी का उद्देश्य एक लिकेन इनकी अकेले चलो की नीति व मैं आम जनता और इस जन-आन्दोलन की हार हुई क्योंकि जन-आन्दोलन में सभी की भागीदारी का होना अत्यंत आवश्यक है। वर्तमान में समय आन्दोलन का नया स्वरुप निकल कर सामने आया है, आरोप का दौर आप किसी पर आरोप लगाये कुछ दिन उस हल्ला मचाये फिर आगे निकल जाये, इस तरह कि आतिशबाजि जो है देखने में तो काफी सुन्दर लगती है लेकिन इससे अपना ही घर जलने का खतरा बना रहता है। यहां मिडिया विशेषतौर पर इलेक्ट्रनिक मिडिया को अपनी भूमिका बड़ी संभल कर निभाने की आवश्यकता क्योंकि इसका सीधा प्रभाव आम जनमानस पर परता है।

आज आन्दोलन, आन्दोलन कम होकर इवेंट ज्यादा हो गया है, जिस प्रकार किसी इवेंट को सफल बानने के लिए प्रचार-प्रसार, दिन आदि का ध्यान रखा जाता कुछ उसी प्रकार आन्दोलनो का संचालन किया जा रहा है यहां जो बात गौर करने योग्य है वह यह है कि इन तमान तरीकों से इवेंट रुपी आन्दोलन तो हीट हो रहा है लेकिन देश को फायदे की बजाये नुकसान हो रहा है। दूसरा आज के आन्दोलन में स्थिरता की भारी कमी नजर आती है, आन्दोलन की शुरुआत जिस मुद्दे को लेकर होती है धीरे-धीरे वह मुद्दा यह बदल जाता है, दिन-प्रतिदिन एक नया मुद्दा मानों यह कोई सिनेमा घर है जहां एक मूवी नहीं चल रही है, तो दूसरे मूवि लगा दो। गांधी ने भारत के आजादी के लिए अपना पहला सत्याग्रह 1917 में शुरु किया था लेकिन 40 साल के लंबे संघर्ष के बाद हमे आजादी प्राप्त हुई, गांधी भी उस समय के परिस्थितियों के कारण अपना लक्ष्य या जिस मार्ग पर वह चल रहे थे उस बदल देते तो शायद जिस धेय को वह प्राप्त करना चाहते थे नहीं कर पाते।

यह सही है कि देश में भ्रष्ट्राचार की जड़े काफी गहरे तक जम चुकी हैं, उस पर सरकार व राजनेताओ का उदासीन व्यवहार इसे और भी निराशाजनक बना देता है। अगर देश को सही मान्यें में इस परिस्थिती से बाहर लाना है तो हमें आन्दोलन कम इवेंट से बाहर आकर ठोस व व्यापक रणनीति तैयार करने की जरुरत पड़ेगी साथ इस महा संग्राम में हमें सभी को साथ में लेकर चलने की भी आवश्यकता है, आज आम जन मानस में जागृति की कमी नहीं बस इस आम जन सही राह दिखानी है, हमें दोहरे स्तर पर इस भ्रष्ट्र तंत्र से लड़ना होगा, राजनीतिक व समाजिक, हमें यह स्वीकार करने में जरा सी हिचक नहीं होनी चाहिए कि देश में अगर  राजनीतिक भ्रष्ट्राचार है तो यहां सामाजिक भ्रष्ट्राचार भी व्यापत है। देश को इस मकरजाल से बाहर निकालने की जिम्मेदारी सिर्फ राजनैतिक दलो, नेताओं, प्रबुद्ध वर्गो की ही नहीं है यहां जितनी जिम्मेदारी इन लोगो की है उससे कहीं ज्यादा जिम्मेदारी हमारी बनती है कि हम किस प्रकार दृढ इच्छा शक्ति के साथ भारत को इस जाल से मुक्त कराते है। आखिरकार लोकतंत्र जनता का, जनता पर, जनता के द्वारा किया गया शासन है। अगर हम दृढ निश्चच कर ले कि हम जाति, धर्म व क्षेत्रवाद से ऊपर उठकर ऐसे नेतृत्व का चुनाव करेगें जो ईमानदारी से देश के लिए काम करेगा,  तो कोई भी राजनैतिक दल चाह कर भी हमारे ऊपर इस विषैले तंत्र को नहीं थोप सकता है।