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Thursday 5 April, 2012

क्यों हाशिए पर हैं प्रगतिशील मुस्लिम विचारक ?

क्या धर्मनिरपेक्षता कट्टरपंथियों की बलि चढ़ जाएगी ? इसी सवाल को गंभीरता से उठाता हुआ यह आलेख भारत नीति प्रतिष्ठान की पाक्षिक उर्दू मीडिया समीक्षा न्यूजलेटर में प्रो० राकेश सिन्हा की सम्पादकीय से साभार प्रकाशित किया जा रहा है |

ढ़ाई दशक पहले एक असहाय महिला ने अपने अस्तित्व बचाने के लिए न्यायालय का दरवाजा खटखटाया था। पति से तलाक मिलने के बाद उसे जो ‘मेहर’ दिया गया था वह इंदौर से दिल्ली तक का किराया भी नहीं होता। नीचे से लेकर देश के सर्वोच्च न्यायालय ने उसके हक, सम्मान और अपेक्षाओं को मानवीय, नैतिक एवं संवैधानिक दृष्टि से उचित माना था। शाहबानो के इस केस ने भारतीय राजनीति एवं सामाजिक जीवन में भूचाल खड़ा कर दिया। मुस्लिम कट्टरपंथियों ने न्यायालय के फैसले को मुस्लिम पर्सनल लाॅ के मामले में हस्तक्षेप करार दिया और भारत की ‘सेकुलर’ सरकार ने उनके सामने घूटना टेक दिया। भारत के संविधान के नीति निर्देशक तत्व में वर्णित और अपेक्षित समान कानून संहिता ;Uniform Civil Code उसी दिन निष्प्रभावी एवं Dead Letter बना दिया गया। तुर्की ही नहीं दो दर्जन से अधिक इस्लामिक देशों ने ‘पर्सनल लाॅ’ को आधुनिकता, वैज्ञानिकता एवं परिस्थितियों के संदर्भ में फेर-बदल किया है। परंतु भारत में यह स्वीकार्य नहीं है। आचार्य जे.बी. कृपलानी ने हिंदू कोड बिल पर लोकसभा में चर्चा के दौरान कहा था कि भारतीय राज्य भी सांप्रदायिक संगठनों की तरह व्यवहार कर रही है। यह एक समुदाय के लिए तो कानून में सुधार एवं संशोधन तो कर रही है। दूसरों को छोड़ रही है। इतिहास ने कृपलानी के इस कथन को यथार्थ बना दिया है। 2012 में महाराष्ट्र सरकार के महिला एवं बाल विकास विभाग द्वारा एक विधेयक तैयार किया गया है। इसमें महिलाओं को आर्थिक रूप से पारिवारिक एवं सामाजिक स्तरों पर सबल बनाने का प्रयास किया गया है। उन्हें पति की संपत्ति में आधा हिस्सा का अधिकार दिया गया। इस विधेयक के अनुसार किसी वैवाहिक संपत्ति के क्रय-विक्रय में पत्नी की सहमति आवश्यक माना गया है। तलाक या बंटवारे की स्थिति में पत्नी को आधी संपत्ति पर हक देने की बात विधेयक में है।अभी विधेयक पर विचार-विमर्श होना था। परंतु ‘अल्पसंख्यक वीटो’ ने इसे अंकुरित होने से पहले ही समाप्त कर दिया। लिहाजा विरोध उलेमाओं या कट्टरपंथियों से शुरू नहीं हुआ। राज्य के अल्पसंख्यक विभाग ने प्रस्तावित कानून का विरोध किया। तर्क था कि यह मुस्लिमों की संवेदनाओं को चोट पहुंचाएगा। अल्पसंख्यक विकास मंत्री नसीम खान ने विरोध की अगुआई की और राज्य सरकार ने घुटना टेक दिया। खान ने शरीयत के अतिरिक्त उसको पुष्ट करने वाले दो कानूनों Dissolution of Muslim Marriage Act 1939 और Muslim Women (Protection of Right on Divorce) Act 1986 का हवाला दिया। क्या भारतीय गणतंत्र, न्याय व्यवस्था और नारियों का अधिकार कट्टरपंथियों के मुताबिक परिभाषित होता रहेगा? यह राज्य पोषित सांप्रदायिकता नहीं तो और क्या है?एक दूसरी अहम घटना भी भारतीय गणतंत्र के लिए अमंगलकारी संकेत दे रहा है। पूरा विश्व एक नए प्रकार के खतरे के कारण अनिश्चितता में जी रहा है। यह है आतंकवाद का बढ़ता मंसूबा। अमेरिका, फ्रांस, जर्मनी, इटली, आस्ट्रेलिया, बेल्जियमय और ब्रिटेन अपने-अपने तरीकों से इस संभावित खतरे से बचने के लिए बेफिक्र होकर कदम उठा रहे हैं। आतंरिक सुरक्षा को इन देशों में राजनीति का मोहरा नहंी बनने दिया गया है। न ही राज्य की नीतियों एवं सामाजिक दृष्टियों में कोई बड़ी खाई है। बेल्जियम का उदाहरण देखिए। आंतरिक सुरक्षा को देखते हुए जब वहां के सिनेट में बुर्का पर प्रतिबंध का विधेयक लाया गया तो 134 में 134 सदस्यों ने प्रतिबंध के समर्थन में मत दिया। सिर्फ दो सदस्य व्यक्तिगत कारणों से अनुपस्थित थे। भारत इन देशों का अनुकरण करे यह जरूरी नहीं है। परंतु आंतरिक सुरक्षा की अहमियत को तो कम से कम इससे समझा जा सकता है। जिस प्रकार आतंकवाद एवं आंतरिक सुरक्षा के प्रश्नों के साथ देश में निम्न स्तर की राजनीति हो रही है वह चिंता का विषय है। 13 फरवरी को इजराईल के एक कुटनीतिक के कार पर बम से हमला हुआ। सुराग मिलने पर 7 मार्च 2012 एक पत्रकार काजमी को गिरफ्तार किया गया। पुलिस ने मीडिया के सामने भी कई तथ्यों को उजागर किया। परंतु बुद्धिजीवियों के एक वर्ग एवं उर्दू मीडिया ने उसकी गिरफ्तारी को मुस्लिम अस्मिता एवं अस्तित्व से जोड़ दिया। दिल्ली से देवबंद तक छोटी-बड़ी जगहों पर उसे ‘नायक’ की तरह प्रस्तुत कर उसे मुक्त किए जाने के लिए धरना, प्रदर्शन संवाददाता सम्मेलन आयोजित किया जा रहा है। गांव और कस्बों के मुसलमानों को किस प्रकार जगाया जा रहा है उसे दिल्ली से प्रकाश्ति ‘सहाफत’ के इस शीर्षक से जाना जा सकता है-”हिंदुस्तान में मुसलमान होना ही जुर्म हो गया है। काजमी का नाम अगर राम-कृष्ण होता तो उसके साथ यह सलूक नहीं होता।“ एक सामाजिक कार्यकर्ता जो ‘अनहद’ से जुड़ी है शबनम हासमी ने इसे राज्य का मुसलमानों पर कहर बताते हुए कहा कि ”पहले मौलवी फिर नौजवान और अब वरिष्ठ पत्रकारों पर निशाना।“ उर्दू अखबारों ने जो अभियान चलाया उसे देखिए। एक-एक दिन में छह-छह समाचार प्रकाशित किए गए हैं। हिंदुस्तान एक्सप्रेस और हमारा समाज ने 12 मार्च के अंक में काजमी के समर्थन में छह-छह समाचार प्रकाशित किए। हमारा समाज ने दो-दिन बाद फिर पांच समाचार प्रकाशित किया तो इंकलाब ने उसी दिन छह समाचार प्रकाशित किया। रोजनामा राष्ट्रीय सहारा ने 14 मार्च को पांच समाचार छापा है। उर्दू टाइम्स ने तो लिख दिया कि ”इजराईल के खिलाफ नहीं लिखना वरना गिरफ्तार हो जाओगे।“ दिल्ली और देवबंद के कुलीनों के जिनमें अनेक प्रबुद्ध एवं जानी-मानी हस्तियां शामिल हैं के इस अभियान का आम मुसलमानों के मन-मस्तिष्क पर क्या प्रभाव पड़ेगा? क्या यह कार्य सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की एक साजिश तो नहीं है?इसका दूसरा आयाम भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। क्या राष्ट्रीय सुरक्षा और आतंकवाद के प्रश्नों पर राज्य एवं जांच एजेंसियां सांप्रदायिक ताकतों के दबाव में काम करेगी? दुर्भाग्य से मानवाधिकार से जुड़े कुछ संगठनों एवं लोगों ने इस अभियान को ताकत एवं वैधानिकता देने का काम किया है। स्वतंत्र भारत के इतिहास में पहली बार आंतरिक सुरक्षा का इतने बड़े पैमाने पर सांप्रदायिकरण कर उसे समुदाय-चेतना को मजबूत करने का औजार बनाया गया है। अल्पसंख्यकवाद एक मगरमच्छ की तरह है जो कभी संतुष्ट नहंीं होता तभी संविधान सभा के उपाध्यक्ष डा. एच.सी. मुखर्जी (जो स्वयं आस्था से ईसाई मतावलंबी थे) ने संविधान सभा में चेताया था कि यदि हम भारत को एक राष्ट्र बनाना चाहते हैं तो किसी समुदाय को धर्म के आधार पर अल्पसंख्यक नहीं मान सकते हैं। शाहबानों प्रकरण के ढ़ाई दशक बाद प्रगतिशील चिंतक-विचारक नेता आरिफ मोहम्मद खान ही नहीं तमाम प्रगतिशील मुस्लिम विचारकों चाहे ए.ए.ए. फैजी हों या मोइन शकीर या जस्टिस एम.एच. बेग की सोच-समझ हासिये पर हैं। ऐसा क्यों हुआ यह प्रश्न विचारणीय है। इस अंक में इन दो मुद्दों पर उर्दू अखबारों के समाचारों एवं लेखों का संक्षिप्त रूप विशेष रूप से प्रस्तुत किया गया है। एक सवाल हमारे सामने है क्या धर्मनिरपेक्षता कट्टरपंथियों की बलि चढ़ जाएगी?

(प्रो० सिन्हा भारत नीति प्रतिष्ठान के मानद निदेशक हैं | )

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